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Dhirani Jhoad NarelaPublisher: Saranjeet | Published: 27 Jul 2016 9:52 pm

संजय सलिल, बाहरी दिल्ली नरेला के धरानी जोहड़ की अब स्मृतियां ही शेष बची हैं। नरेला के धरानी जोहड़ की अब स्मृतियां ही शेष बची हैं। इतिहास के कई पहलुओं को अपने में समेटे इस जोहड़ का अस्तित्व अब पूरी तरह से मिट चुका है। इसके वर्तमान स्वरूप को देखकर नई पीढ़ी के लिए सहज यह विश्वास करना मुश्किल हो जाएगा कि कभी यहां 35 बीघे में प्राकृतिक जलस्रोत हुआ करता था, जो नरेला के सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक संगम का मनोहारी केंद्र था। मौजूदा समय में इस जोहड़ की जमीन पर दिल्ली परिवहन निगम का बस टर्मिनल है। करीब तीस साल पुराने इस टर्मिनल में अब भी कई सुविधाओं का अभाव है। यहां सुविधा के नाम पर केवल बसों को खड़ी करने की जगह भर ही है। स्थानीय निवासी जो¨गदर दहिया कहते हैं कि यह क्षेत्र हरा भरा क्षेत्र था, यहां सौ से अधिक नीम के पेड़ लगे थे, जिनमें हरियाली तीज के मौके पर महिलाएं झूला झूलती थीं। यहां हर वर्ष दंगल के साथ धार्मिक उत्सव का आयोजन होता था, जिनमें आसपास के गांवों के लोग भी भाग लेने आते थे। धी-रानी से धरानी तक का सफर इस जोहड़ का निर्माण वर्ष 1732 में बल्लभगढ़ राज घराने की रानी रत्नी देवी के दादा नयनसुख ने कराया था। उस समय इसके आसपास विस्तृत कृषि भूमि थी। लोग इस जोहड़ का इस्तेमाल कृषि कार्यो, पशुओं को नहलाने व कपड़े आदि धोने के लिए करते थे। नरेला के इतिहास पर आधारित पुस्तक नानू के ननेरा के लेखक व पूर्व अधिकारी हरि भारद्वाज बताते हैं कि रानी रत्नी देवी नरेला के उद्यान पानी की बेटी थी। उनकी शादी बल्लभगढ़ के राजा राम ¨सह के भाई कुंवर रणजीत ¨सह के साथ हुई थी। जब राजा राम ¨सह के बेटे नाहर ¨सह को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया और बल्लभगढ़ किले पर आक्रमण कर दिया तो रत्नी देवी वहां से नरेला अपने मायके चली आई रीं। तब ऐसी परंपरा थी कि शादी के बाद बेटी अपने मायके में नहीं रह सकती है तो रत्नी के परिजनों ने उक्त जोहड़ के पास ही शिव मंदिर, कुआं आदि का निर्माण कराया और यह जगह रत्नी देवी को रहने के लिए दी। रत्नी नरेला की बेटी (धी) थीं और वह राजघराने की रानी थी। ऐसे में इस जगह का नाम धी - रानी पड़ गया। जो कलांतर में अपभ्रंश होकर धरानी जोहड़ के नाम से पुकारे जाने लगा। रानी रत्नी देवी के परिजन धनीराम बताते हैं कि उस समय हर गांव में प्राकृतिक जल स्रोत के रूप में तालाब होते थे। तालाब व कुआं का निर्माण कराना धार्मिक लिहाज से परोपकार के कार्य माने जाते थे। इसी मकसद से उनके पूर्वज ने इस जगह पर जोहड़ खुदवाया था। भोलर के महेंद्र खत्री बताते हैं कि जोहड़ पर जब धार्मिक आयोजन होते थे तो कई गांवों के लोगों को आपस में मिलने का मौका मिलता था, इससे उन गांवों के बीच सामाजिक-सांस्कृतिकसंबंध बनते थे। जब जोहड़ ही समाप्त होते चले गए तो अब इस तरह के आयोजन भी अतीत की बातें हो गई। नरेला के महेंद्र खत्री , प्यारे लाल आदि ने बताया कि यहां के लोगों ने इस जोहड़ के अस्तित्व को बचाने की काफी कोशिश की, मामला न्यायालय तक भी पहुंचा, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला और करीब तीस साल पूर्व यहां बस टर्मिनल का निर्माण करा दिया गया।




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