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स्वयं की खोजPublisher: Saranjeet Singh | Published: 21 Mar 2016 11:30 am

आज तक अभी तक जिन्होंने भी उस आन्नद को पाया है। वही आत्मा का मिलन है, वहीं ज्ञान का होना है, वही बुद्धत्व है। बहुत अनेकों नाम अलग-अलग ढंगों से प्रचलित है। वहीं प्रमात्मा का होना होता है। अब हमारा जो विषय है हम उस विषय की ओर चलेंगे।हमारा विषय है स्वयं की खोज मेरी मंजिल स्वयं की खोज आप देखें एक बार अपने इस जीवन को आप इस धरा के ऊपर है, आप अभी तक कहां किस खोज में लगे हुए है। आप अनन्त जन्मों से किस प्यास में किस दौड़ धूप में आप लगे हुए हैं। आप एक बार जब अपने गहरे अन्तरतम में जब पहुंचते हैं और ढूंढते है जब अपने आप को तो भय भी लगता है। कभी-कभी डर भी लगता है कि ये सब कुछ क्या है। मैं क्यों हूँ ? किसलिए हूँ ? क्या मेरा ओचित्य है ? मैं आया भी तो क्यों आया हूं। अब यहां फर्क है कि आने का जो मार्ग है वो स्वंय आप ही तय करते है। लेकिन पता नहीं लगता हमारा जो जन्म हुआ है हमें पता नहीं है कि क्यों किसलिए हम इस धरा के उपर आए हैं। लेकिन बार बार आप आते है उस बार बार आने के पीछे जो मन के अन्दर कुछ इच्छाएं जो आपकी होती है। मन के अन्दर जो वासनायुक्त जो आपके महत्वकांक्षाएं जो होती है। उस मन की महत्वकांक्षाओं के कारण आप इस धरा पर लगातार आते रहते हैं। अब मन की जो इच्छाएं है। इसलिए वेद का एक मन्त्र है बड़ा प्यारा कि धर्म अर्थ काम करते हुए मुक्ति और मोक्ष प्राप्त हो सकते है। उन्होंने ये ना कहा कि आप अपनी इच्छाओं का दमन करें। वेद का जो मन्त्र है उसमें भी है कि आप काम करते हुए अपनी इच्छाओं को पूरा करते हुए मुक्ति और मोक्ष को प्राप्त हो सकते है। इसलिए धर्म जिस भी धर्म में हम जन्म ले लेते है संयोगवशात। मैं अब उन धर्मो की बात नहीं कर रहा हूं जो परम्परागत जो रीत जो परिपाठी जो चली आ रही है। अगर धर्म का भी जहां भी जिक्र आएगा, तो आपके उस अन्तरतम की बात करूगां जो आप है। इसलिए धर्म कहीं बाहर की परिधि पर नहीं है। जो आप चारों तरफ धर्मो को देख रहे हैं। मन्दिर है, मस्जिद है, गुरूद्वारे है, जो ये बाहर की परिधि पर बने है वो ठीक है पहली कड़ी है अध्यात्म की। वो भी एक सहायक है आपकी मदद करती है कि कहीं तो झुकना है कहीं तो झुकना होता है। किसी बहाने तो हम झुकते है वो पहला पायदान है अध्यात्म का। जो किसी कारण हम झुके और नम्रता हमारे अन्दर एक आती है तो इसलिए आप उस और जब जाएं तो जो मन्दिर मस्जिद जो गुरूद्वारे है चर्च है वे मददगार है आपके अध्यातम की ओर जाने के लिए। इसलिए हम लेकिन जो जैसे अब इससे आगे की हम बात करेंगे हम वहां उस तरफ हम बढ़ रहे हैं कि उन संतो ने जो कहां है उन्होंने बार बार एक ही बात कहीं है। कि जो वो आन्नद है जो आत्मतत्व है। जो केन्द्रिष्ठ जो सत्ता है। जो जीवन जो दायनि जो ऊर्जा है। वो आपके अन्दर मौजूद है। उसके पास जब आप होते है तो आप उस आन्नद के क्षण में होते हैं। अभी तक जैसे कहें कि आत्मा या रूह कहे उसके तीन आयाम है। मन बुद्धि, और संस्कार। सदा आत्मा निरलेप है। आत्मा का कभी भी जन्म नहीं होता। लेकिन हम ज्यादातर यहीं समझते आये या मानते आऐ कि आत्मा जन्म लेती है। आत्मा जन्म लेती है लेकिन किन कारणों से लेती है। ये समझना है। जो वो कवच है जो आत्मा के मन बुद्धि और संस्कार ये आत्मा के कवच है। और मन के कारण जिस बात को मैं ले के चल रहा हूं। कि मन की जो इच्छाएं है जो कामनाएं है। उन इच्छाओं ओर मन की कामनाओं के कारण हम निरन्तर अनन्त-2 जन्मों से श्रंखलाबद्ध हम इस धरा के उपर आ रहे है। अब मुक्ति की बात आती है। कि मुक्त कब हुआ जाएगा। इसको हम बाद में लेंगे। लेकिन हमारे जो प्यास है जो खोज है वो अन्नत-2 जन्मों से चली आ रही है। लेकिन कुछ हमारे धर्म ऐसे भी है जो वो जन्मों को नहीं मानते है पूर्वजन्मों को। लेकिन फिर भी आज आप देखें रिसर्च चल रही है। वैज्ञानिक खोज भी जो है काफी हद तक इस प्रयास में लगी हुई है। और कुछ-कुछ प्रैक्टिकल जो अब आ रहे है। और अभी जो कुछ कनफर्म ना भी हुआ आगे आने वाले समय में ये सब कनफर्म भी हो जाएगा कि आत्मा का जन्म होता है। कब तक उसका जन्म निरन्तर चलता रहता है। जब तक वो पूर्ण विकसित ना हो जाए। जब तक उसका पूर्ण विकास ना हो जाए। अब हम जिस विकास की बात कर रहें है। अब हम ले के चलेंगे कि दो विकास हैं एक आन्तिरक विकास है चेतना का जिसको हम विकास कहते है एक बाहृ विकास है जो अर्थ का रूप है। अब अर्थ का सम्बन्ध धर्म अर्थ। धर्म आपके आन्तिरक जगत का हिस्सा है। और अर्थ आपका बाहृ हिस्सा है। और मन जो काम है। वो भी अति सूक्ष्म रूप से एक हिस्सा है आपका। मन दिखता तो नहीं लेकिन फिर भी है। शरीर दिखता है। अब बात जो हम कर रहे है। अब इस फर्क को समझेंगे थोड़ा सा। जैसे जो बाहृ जो दृश्य मान है चारों तरफ दिख रहा है सब। अब हम दोनों चीजों को लेकर चल रहे है एक अध्यात्मिक पक्ष है और एक वैज्ञानिक पक्ष है। जो दिखता है वो विज्ञान है। और जो ये आकाश जो स्पेस है ये जो खालीपन है ये अध्यात्म है। अब इस भेद को थोड़ा साधारण रूप से समझा देता हूं। कि जो आजकल अब वो सब वो प्रूफ भी हो चुका है। कि अब पहले जो हम जड़ पदार्थ समझते थे पृथ्वी को अब वैज्ञानिक ने 60-70 पहले ये प्रूफ कर दिया है कि सब विधुतमय है। यानिके ये सब ऊर्जामय है। सब इनर्जी है। और उस एनर्जी का सग्रंह यानि के उस एनर्जी को इक्ट्ठा हो गया रूप ये पृथ्वी है। और जो दिखता है वो उस ऊर्जा का सघन रूप है। उसी परमात्मा का आयाम। बना उसी से है। लेकिन वो ऊर्जा इक्टठी हो गई वो स्थूल जगत है। जो हम देखते है जो दिख रहा है जो बार बार लोग कहते है। कि पांच तत्व है। उनसे पृथ्वी और पूरा ये वायुमण्डल है। और उन्हीं पाचं तत्व से हमारा शरीर बना है। यानि कि जो पाचं तत्व है वो स्थूल है। और उन पाचं तत्व से हमारा शरीर बना है। लेकिन अब बात आती है कि अध्यातम क्या है। अब इसको थोड़ा आप समझ लेंगे कि जो भी सघन ऊर्जा संगठित हो गई है। और जो दिखती है वो विज्ञान है जो वैज्ञानिकों ने उसको तोड़-के अणु तक तो वो पहुंचा है। एटमिक जो पॉवर है वहां तक तो वैज्ञानिकों नें खोज लिया है। लेकिन वो अणु इतने सूक्ष्म है। कि वो आंखों से भी नहीं दिखते। लेकिन फिर भी उनका प्रमाण तो है कि वो है। अब बात आती है कि वो परमाणु जो तोड़- तोड़ के भी उसका परिणाम और उसको महसूस किया जाता है। वो भी एक हिस्सा है इस ऊर्जा के टूटने का जो सघन हो गई ऊर्जा है। लेकिन इससे भी जो अति सूक्ष्म जो रूप से जो मैं बात कह रहा हूं इससे भी अतिसूक्ष्म रूप से जो भी तत्व खनिज पदार्थ इस पृथ्वी पर मौजूद है। सघन रूप से जो ऊर्जा इक्टठी हो गई जो दिखती है वो अति सूक्ष्म रूप से आकाश में भी उसके कण मौजूद हैं। इसका मतलब जो हमारा ये शरीर है वो इस पृथ्वी से सम्बन्ध रखता है। हम इस पृथ्वी को पाचं तत्व से हमारा शरीर निर्मित हुआ है। जैसे-जैसे पृथ्वी का एक-एक तत्व का अति सूक्ष्म रूप आकाश के अन्दर मौजूद है। तो क्या हम मौजूद ना होंगे। अब आप थोड़ा सा समझ लें। कि जो आप यहां है जो आप अपने आप को देख रहे हैं स्थूल रूप से आपका अति सूक्ष्म रूप भी मौजूद है इस ब्रह्राण्ड के अन्दर इस आकाश के ऊपर। वही विराटता है आपकी वही आपका होना है। अब उस विराटता को जानना उस अति सूक्ष्म को जानना ही आपका होना है। अब उस विराटता को जानना उस अति सूक्ष्म को जानना ही आपका ध्येय है अर्थ की आवश्यकता पड़ेगी। शरीर की आवश्यकताएं है उसकी पूर्ति के लिए आपको वर्क करना पड़ेगा। लेकिन इस वर्क के पीछे मैं आपको कुछ एग्जाम्पल दे दूं कि क्यों मनुष्य ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारी है कि पहले मनुष्य का जो विकास हुआ है उसमे भी कुछ मतभेद है धर्म कुछ कहता है और डार्विन की Theory कुछ कहती है। लेकिन फिर भी हम उन चीजों में ना पड़े। लेकिन फिर भी हम एक चीज जरूर एक चीज से सहमत होते है कि मनुष्य सदा विकसित हुआ है। और मनुष्य की चेतना भी सदा विकासशील रही है। और वो बाहरी भले ही बाहर की परिधि पर विकास हो या भले ही आतंरिक विकास हो। हर जगह विकास हुआ है इस मनुष्य का। अति सूक्ष्म रूप से भी और स्थूल रूप से भी। इसलिए जो हमारा विकसित हो गया यानि के शरीर भी और आत्मा भी जो शरीर का जो विकास है वो धीरे-धीरे हमारा विकास हुआ है। जैसे डार्विन ने कहा कि हम हर यानि के धीरे-धीरे बन्दर से मनुष्य बना है लेकिन हम उस चक्कर में ना पड़े इतना जरूर है कि विकास हुआ है और हम जितनी भी प्रजातियां हैं जैसे हम ये कहे कि पहले पानी था, फिर धीरे-धीरे पृथ्वी का स्वरूप आया, धीरे-धीरे फिर उसके बाद जीव की उत्पति हुई यानि के जो काई वो अमिबा जिसको हम कहते है जो काई का रूप है वो पहले शुरू में वहीं जीवन था। लेकिन वो एक रूप था इसको थोड़ा समझेंगे वो एक रूप था जब वो विभक्त हुआ जब वो टूटा तभी अलग-अलग धर्मो ने कहा है कि पुरूष से ही स्त्री निर्मित हुई है। ठीक है जैसे हमारे अर्धनारेश्वर शिव का आधा शरीर स्त्री का और आधा पुरूष का बताते है। ऐसे ही जब वो अमीबा जब टूटता है तो विभक्त होता है और वहां से ही जो दो में द्वैत में हम बंटते है। और वहीं से प्रजन्न जो संतती जो उत्पन्न जो हुई उसी के टूटने से यानि के एक था और उस एक से टूटने से दो में विभक्त हुआ और वहीं से संतती उत्पन्न हुई और जीवन दायिनि जो जीवन की जो श्रंखला है धीरे-धीरे आगे बढ़ती गई और वहीं विकास हमारा आज इस मनुष्य की डोर तक पहुंचा है। इसका मतलब आप समझ रहें हैं कि हमारा विकास सभी से गुजरते हुए हम यहां तक पहुचें है। अब जो वो लम्बी यात्रा आप लोगों की हो रही है। अब वो लम्बी यात्रा का रूप स्वरूप क्या है ? उसको जानना है अगर उसको आप जान लेते है तो सर्वोदय सम्पूर्ण को उपलब्ध हो जाते है। तभी समाधी में प्रवेश होता है तभी आप स्वंय में स्थित होते है तभी आप आन्नद पूर्ण होते है इसलिए अब हम फिलहाल अब हम पीछे की बात ना करते हुए यही फिर हम लौटते है कि जो अर्थ की आवश्यकता है जो अर्थ का रूप है आपके सामने अब इस समय शरीर की जो आवश्यकताएं है उनकी पूर्ति के लिए आपको कर्म करना पड़ेगा क्योंकि जैसे-जैसे बुद्धि मनुष्य की विकसित हुई है सोचना शुरू हुआ है तो इस बुद्धि के कारण मनुष्य जो है वो काम के प्रति संलग्न हुआ उसने अपनी सुविधाओं के लिए सामान जुटाएं। और उन सामानों को फिर किस रूप में आज हम लोग आपस में लेन-देन कर रहे हैं। उसी से फिर एक अर्थ का रूप आया धीरे-धीरे आज हमारे सामने खुद स्वत: समस्या कहे संसार में रहते-रहते बहुत सारी समस्याएं है जीवन में कि हम संसार में है और संसार में रहते-रहते हम दु:खी है। बस कारण इतना है कि हम उस विकास को जो विकसित हुआ है आपको जो मनुष्य का मामला आत्मा का भी और शरीर का भी उसी विकसित होती कड़ी में हम निरन्तर आगे बढ़ते है। तो समस्याएं संसार में व्याप्त रहती है। क्योंकि मनुष्य अब तो इतना जंजाल में फस चुका है लेकिन आप अगर देखें नजर दौड़ाएं ये जंजाल किसने खड़ा किया स्वत: खुद मनुष्य ने। जितनी भी सुख सुविधाएं मनुष्य ने जुटानी चाही उसको इक्ट्ठा करता रहा और एक सुविधाएं जुटाई और फिर उन्हीं सुविधाओं के पीछे फिर समस्या खड़ी पाई छोटा सा एक्जाम्पल बिजली बनाई लेकिन बिजली के फायदे है और बिजली के नुकसान भी है। प्लेन बनाया प्लेन बनाने के फायदें भी है और नुकसान भी है। आज हमने जो भी सुख-सुविधाएं जितनी भी हमने प्रकृति से ली है सब कुछ चीजे। देखो जो भी चीज बना है इस प्रकृति यानि के पृथ्वी के जो तत्व है इन्हीं से तो लिया है सब। यही से सब निर्मित हुआ है। यही से सब लिया गया है। तो जो भी चीज हमने कड़ी की है। उसके पीछे मनुष्य का हाथ रहा है। फिर मनुष्य सदा से रहा है। तो सदा से ही इसने सब निर्माण किया है। और फिर हम कहते है कि आज जो भी समस्या अब इस समय हमारे जीवन में आती है इस संसार को देखते हुए तो हम कहते है कि बड़ा दु:खदायी है। जिसने यह संसार बनाया। उसने तो बड़ा सुन्दर बनाया था सब। आप देखना जब बच्चा जन्म लेता है तो बड़ा कोमल हदय का होता है लेकिन उसके जो चारों तरफ जंजाल बुनता है तो धीरे-धीरे बड़ा होता है तो उसका बुनने का काम किसने किया कौन करता है हम और आप सब लोग धीरे-धीरे वो पोषण वो बढ़ता है धीरे-धीरे बढ़ता है तो इतनी दुनियां भर के मैं कहूंगा थोड़ा शब्द भी वैसा है ऐसी-ऐसी चीजें अन्दर भरती चली जाती है इतने-इतने जैसे मैं शुरू से लेता हूं कि परिवार के बहुत सारे नियम कायदे कानून होते है बहुत सारे अपने बंधन होते है फिर समाज के बंधन बहुत सारे होते है फिर उसके बाद धर्म जो हमने बाहर की परिधि पे जो खड़े किये है उनके बहुत बन्धन होते है और रीत परिपाठी और बड़े-बड़े जो है बन्धनों से हम अपने जीवन को जीते है इतनी भारी-भरकम हम इसको बना लेते है और जब वो परत पे परत जब जमती है जमती चली जाती है तो जो आपका होना था जो स्वंय को जो एक ज्ञान जो आपके अन्दर जिसको ले के आप जन्में थे जिस बीज के साथ अब आप इस धरा के ऊपर आए है क्या उस बीज तक आप पहुंच पाते है। जिस दिन आप उस बीज तक पहुंच गए वही कला कहलाती है 16 कला सम्पन्न कृष्ण थे ना वही कला आपके अन्दर भी व्याप्त है, लेकिन फर्क बस इतना है कि वो परत पे परत इतनी जम चुकी है कि हम अपने उस बीज तक नहीं पहुंच पाते है। जिसको ले के आप अनन्त जन्मों से इस धरा पे आ रहे हैं। लेकिन आज आप यहां पहुंचे है और किसी ने आपको बताया होगा कुछ नये मित्र आयें होंगे किसी ने कुछ बताया होगा प्रचार अलग-अलग तरीको से होते है कहीं नेगेटिव भी होता है कहीं पोजेटिव भी होता है। अलग-अलग धारणाएं होती ही होती है लेकिन अब आप यहां तक तो पहुंचे है अब आप अगर यहां तक आये है और पूर्ण अगर आप सही में अगर आपको स्वंय को जानना है क्योंकि हम यहां उन किताबों की बात बिल्कुल ना करेंगे जो बाहर की परिधि पे लिखी गई किताबें है हम उनकी यहां बात बिल्कुल ना उठायेंगे बात भी अगर आएगी तो वो आपसे सम्बन्ध होगा उसका क्योंकि वे किताबें हम पढ़ने के लिए मना नहीं करते। पढ़ना भी चाहिए जरूरी है क्योंकि जो मैंने कहा पहला पायदान जो अध्यातम का है वो है बहीरपूजा उसको शंकराचार्य ने बड़े अच्छे से कहा जो बाहर की पूजा जो स्तुति पूजा जहां भी आप झुकते है वो अध्यातम का पहला पायदान है फिर उन्होंने कहा स्तुति, जप, प्रार्थना जब आप जप, स्तुति और प्रार्थना करते है स्वाध्य करते है तो वो अध्यातम का दूसरा पायदान है कि जो भी कुरान, गीता, रामायण जो भी आप पढ़ते हैं वो भी जो है आपकी मददगार है लेकिन बाधा है जैसे मूर्ति पूजा है जैसे आप मन्दिर में जाते है एक हद तक वो ठीक है कि आप झुक रहे है। लेकिन वो भी बाधा है अब आप उन बाधाओं को धीरे-धीरे समझेंगे कि आपके जीवन में बाधा क्यों है ऐसे ही जो आप पठन-पाठन आप जो करते है वो एक हद तक ठीक है कि आपकी गति हो रही है लेकिन फिर भी उसमें बाधा है क्योंकि आगे आप जब पढ़ेंगे तो आपकी भी एक सुन्दरतम गीता है आपकी भी एक सुन्दरतम कुरान है जो आपके अन्दर व्याप्त है उसको आपने पढ़ना है जैसे आप देंखे क्या पहले आप सोचो थोड़ा सा कि कृष्ण को जो सत्य उपलब्ध हुआ तभी गीता बही होगी या पहले गीता बही ? पहले ज्ञान उपलब्ध होता है। तभी गीता बही है कृष्ण से। मुहम्मद साहब को ज्ञान उपलब्ध हुआ उस प्रकाश के दर्शन हुए तभी कुरान बही है। महात्मा बुद्ध ज्ञान को उपलब्ध हुए तो धमपद लिखा गया है जो भी जब भी जिस समय भी उपलब्ध होता है तो फिर बहता है वही एक है जिससे भी बहा है कहीं मतभेद है तो हम लोगों ने खड़े किए है लेकिन जो भी उपलब्ध हुआ है आज तक इस धरा के ऊपर वहां एक ही ज्ञान पूर्ण उपलव्धता होती है क्योंकि परमात्मा अलग और भिन्न नहीं है उसका जो स्वाद है उसका जो होना है वो एक जैसा ही है भले ही मौहम्मद साहब को हुआ भले ही कृष्ण को हुआ भले ही बुद्ध को हुआ और अनेकों संत है भले ही महावीर को हुआ और दुनियां भर के संत है जो भी ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं उन सबको पहले वो घटना घटित हुई है उस घटना के बाद सब वो बहा है। फिर वो शब्दों में आया है फिर वो पन्नों पे आया है फिर हम उन पन्नों को पढ़ते है क्या पढ़ने से या बोलने से अभी तक क्या कोई उपलब्ध हो पाया है ? जो भी आज तक अभी तक उपलब्ध हो पाया है तो वो शान्त चित, र्निविचार, मौन अवस्था को उपलब्ध हुआ है तभी उसके अन्दर जो बीज पड़ा है वहां तक वो पहुंचता है और उस बीज को जब वो देखता है तो जो भी कवच मन के कारण, बुद्धि के कारण और संस्कारों के कारण जो वो आत्मा का वो कवच घिरा पड़ा है वो टूटता है और उस टूटने में ही आपका रेचन होता है तब उस आन्नद लोक में होते है। तब आन्नद के सोपान में होते है इसलिए आत्मा और परमात्मा का विषय अब बाद का है हम उसको बाद में ले लेंगे। अभी फिलहाल हम स आन्नद को जान लें जो स्वत: आप है। आन्नद कहीं बाहर नहीं है। क्योंकि मन के कारण दु:ख और सुख सदा रहते है जब मन गिरता है बुद्धि के कारण आप सदा दु:खी रहती है। क्योंकि बुद्धि सोचती और विचारती है जैसे आपकी इच्छा के अनुसार आपके मन के हिसाब से जब कुछ ना होता है तो आप दु:खी हो जाते है दिक्कत आती है लेकिन अब आप धीरे-धीरे अपने उस अन्तरतम को पाएंगे उस केन्द्रिय सत्ता के सोपान में डूबेंगे। जहां ये मन और बुद्धि और जो संस्कार जो जन्मों आप ढ़ोए चले आ रहे है धीरे-धीरे आप हल्के होंगे और धीरे-धीरे पहले आपका शरीर हल्का होगा फिर आपका धीरे-धीरे मन हल्का होगा और फिर आप उस आत्मा की भूमि पर विश्राम कर पाएंगे। वो बगैर अनुभव बगैर प्रैक्टिकल के सम्भव नहीं है इसलिए जितने भी संत हुए है। आज तक अभी तक धरा पे। सबने कुछ न कुछ खोजा है और सबने कुछ न कुछ मार्ग दिया है उन्हीं मार्गो को हम आज कुछ आज के व्यवस्था और समय के अनुसार ढ़ालते हुए हमने कुछ प्रयोग बनाएं है उन्हीं प्रयोगों के द्वारा हम आपको वहां तक आपका अन्तरतम जो आन्नद जो आपके अन्तरतम में है वहां तक ले जाने की कोशिश करेंगे और आन्नद से तो शायद किसी को परहेज होगा भी नहीं। भले किसी धर्म का हो। आन्नद तो सब को चाहिए हर किसी को आन्नद तो चाहिए भले किसी जाति का है, भले किसी धर्म का है, भले किसी भी पंत का है। किसी की मान्यता कुछ है लेकिन आन्नद तो सवको चाहिए। इसलिए हम उस आन्नद के सौपान में अब डूबेंगे और यहां बातचीत भी अगर कुछ होगी तो वो बस एक इशारा मात्र होगी बस आप इतना जरूर है कि यहां आए है बड़ा किमती समय निकाल के आए है। तो उस समय को आप जायज ना जाने दे पूर्णतया के साथ आप यही इसी ध्यान विज्ञान के हो के रह जाए क्योंकि वैज्ञानिक आधार है और आप अध्यात्म आपका अन्तरतम केन्द्रिष्ठि सत्ता है। इसलिए हम विज्ञान और वैज्ञानिक की विधियों के द्वारा हम आपको उस अन्तरतम जो केन्द्रिष्ठ सत्ता है वहां तक ले जाने की कोशिश करेंगे। उसके पहुंचने से जो भी मन की नैगेटिविटि जो भी नाकारात्मक जो वृतियां है जो आपके अन्तरतम में है वो सब धूमिल हो जाती है फिर एक शुभ भाव एक कल्यामय का भाव एक मित्रता का भाव एक प्रेम का और एक शान्ति का, एक मार्ग, एक अन्तरतम जो आप में पड़ा है वो खिल उठता है और उसका एक खिलना हुआ है सदा से और जो भी जब भी या कभी उपलब्ध हुआ है इस धरा के ऊपर तो उनका एक ही मकसद रहा है कि ये पृथ्वी स्वर्गमय हो।आनन्दमय




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