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उपयोगी कलाPublisher: Saranjeet Singh | Published: 17 Mar 2016 4:36 pm

पक द्रष्टी से देखने पर मनुष्य के प्रत्येक कार्य में कला अपेक्षित होती है। मानव जीवन में जिस कला का कोई न कोई उपयोगी हो वह उपयोगी कला कहलाती है। जैसा कि हमने पहले कहा है ललित कला भी गौण रूप में उपयोगी हो सकती है। इसलिए उपयोगी कला में कला के समग्र रूपों को समाहित किया जा सकता है।कला शब्द का प्रयोग सबसे पहले भरत के नाट्य शास्त्र में ही मिलता है। पीछे वात्स्यायन और अशनस् ने क्रमश: अपने ग्रंथों कामसूत्र और शुक्रनीति में इसका वर्णन किया। कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है यद्दपि इसकी हजारों परिभाषा की गई है। प्रकट है कि यह शब्द इतना व्यापक है कि विभिन्न विद्घानों की परिभाषाएँ केवल एक विशेष पक्ष को छू कर रह जाती हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। यूरोपीय शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्वपूर्ण माना हैं।कामसूत्र, शुक्रनीति, जैन ग्रन्थ, प्रबन्ध कोश, कला विलास, ललित विस्तार इत्यादि सभी भारतीय ग्रंथों में कला का वर्णन प्राप्त होता है। अधिकतर ग्रंथों में कलाओं की संख्या 64 मानी गई है। प्रबन्ध कोश इत्यादि में 72 कलाओं की सूची मिलती है। ललित विस्तार में 86 कलाओं के नाम गिनाए गए हैं। प्रसिद्ध कश्मीरी पण्डित क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रंथ कला विलास में सबसे अधिक संख्या में कलाओं का वर्णन किया है। उसमें 64 जनोपयोगी, 32 धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सम्बन्धी, 32 मात्सर्यशील प्रवाव-मान सम्बन्धी, 64 स्वच्छकारिता सम्बन्धी, 64 वेश्याओं से सम्बन्धी, 10 भेषज, 16 कामस्थ तथा 100 सार कलाओं की चर्चा है। परन्तु सबसे अधिक प्रामाणिक सूची कामसूत्र की है।यूरोपीय साहित्य में भी कला शब्द का प्रयोग शारिरिक या मानसिक कौशल के लिए ही अधिकतर हुआ है। वहाँ प्रकृति से कला का कार्य भिन्न माना गया है। कला का अर्थ है रचना करना अर्थात् वह कृत्रिम है। कला और विज्ञान में बी अन्तर माना जाता है। विज्ञान में ज्ञान का प्राधान्य है, कला में कौशल का। कौशलपूर्ण मानवीय कार्य को कला की संज्ञा दी जाती है। कौशल विहिन या भोंड़े ढंग से किए गए कार्यों को कला में स्थान नहीं दिया जाता।कामसूत्र के अनुसार 64 कलाऐं निम्नलिखित है:1.गायन 2. वादन 3. नर्तन 4. नाट्य 5. आलेख (चित्र लिखना) 6. विशेषक (मुखादि पर पत्र लेखन) 7. चौक पूरना, अल्पना 8. पुष्प शैया बनाना 9. अंगरागादि लेपन 10. पच्चीकारी 11. शयन रचना 12. जल तरंग बजाना (उदकवाछ) 13. जलक्रीड़ा (जलाघात) 14. रूप बनाना (मेकअप) 15. माल गूँथना 16. मुकुट बनाना 17. वेश बदलना 18. कर्णाभूषँ बनाना 19. इत्र आदि सुगंध द्रव्य बनाना 20. आभूषणधारण 21. जादूगरी (इन्द्रजाल) 22. असुन्दर को सुन्दर बनाना 23. हाथ की सफाई (हस्त लाघव) 24. रसोई कार्य (पाक कला) 25. आयानक (शर्बत बनाना) 26. सूची क्रम (सिलाई) 27. कलाबत् 28. पहेली बुझाना 29. अन्त्याक्षरी 30. बुझौंवल 31. पुस्तक वाचन 32. नाटक प्रस्तुत करना (नाटकाव्यायिका दर्शन) 33. काव्य समीक्षा पूर्ति 34. बेंत की बुनाई 35. सूत बनाना (वुर्क कर्म) 36. बढ़ईगिरि 37. वास्तु कला 38. रत्न परीक्षा 39. धातुकर्म 40. रत्नों की रंग परीक्षा 41. आकर ज्ञान 42. बागवानी (उपवन विनोद) 43. मेंढ़ा पक्षी आदि लड़वाना 44. पक्षियों की बोली सिखाना 45. मालिश करना 46. केश मार्जन कौशल 47. गुप्त भाषा ज्ञान 48. विदेशी कलाओं का ज्ञान 49. देशी भाषाओं का ज्ञान 50. भविष्य कथन 51. कठपुतली नर्तन 52. कठपुतली के खेल 53. सुनकर दोहरा देना 54. आशु काव्य किया 55. भाव को उल्टा कर कहना 56. धोखाधड़ी छलिक योग, छलिक नृत्य 57. अभिधान कोश ज्ञान 58. नकाब लगाना (वस्त्र गोपन) 59. धूर्त विघा 60. रस्साकशी (आकर्षण क्रीड़ा 61. बाल क्रीड़ा कर्म 62. शिष्टाचार 63. मन जीतना वशीकरण 64. व्यायाम।शुक्रनीति के अनुसार कलाओं की संख्या असंख्य है, फिर भी समाज में अति प्रचलित 64 कलाओं का उसमें उल्लेख हुआ है। वात्स्यायन के कामसूत्र की व्याख्या करते हुए जयमंगल ने दो प्रकार की कलाओं का उल्लेख किया है। 1 कामशास्त्र से सम्बन्धित कलाएँ 2 तंत्र सम्बन्धी कलाएँ।दोनों की अलग अलग संख्या 64 है। काम की कलाएँ 24 हैं जिनका सम्बन्ध संभोग के आसनों से है, 20 धूत सम्बन्धी, 16 काम सुख सम्बन्धी, 4 उच्चतर कलाएँ। कुल 64 प्रधान कलाएँ हैं। इसके अतिरिक्त कतिपय साधारण कलाएँ भी बताई गई हैं।शैवतन्त्र को भारतीय संस्कृति की अमर निधि माना जाता है। उसमें भी कलाओं की संख्या 64 ही बताई है, किन्तु मुख्य रूप से 32 कलाओं का वर्णन है, जिन्हें प्रधान या प्रमुख कलाएँ कहा गया है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जाता सकता है कि मानव के जीवन यापन में जो भी निर्मात्री क्रिया उसकी सहयोगी होती है, वह कला है और उसे उपयोगी कला कहा जा सकता है। परन्तु मानव मन के परिष्कार में जो कला सहयोगी होती है उसे हम ललित कला कह सकते है। यह कला मनुष्य के सौन्दर्य बोध की किसी न किसी रूप में अभिव्यक्ति है। अनुभूत सौन्दर्य को मानव ललित कला के माध्यम से ही अभिव्यक्त कर सकता है और उस अनुभूत सौन्दर्य की अनुभूति सच्चा कलाकार दर्शक, पाठक या श्रोता तक पहुचाँ सकता है। केवल यही वह तत्व है जो कला को अजर अमर बनाए हुए है तथा कला दिन प्रति दिन अपने नव्य रूप में हमारे समक्ष प्रकटित होती रहती है।




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